This poem is written as a tribute to a painting by a close friend. I happened to visit an exhibition of his work and was awestruck by this one (picture of the painting embedded in the post)
तुम कैद कर जो लोगे मेरे इन हाथों को ,
पर कैसे बाँध पाओगे समंदर ख्यालों का ।
जकड़ लोगे मुझे चंद बेड़ियों में तो क्या,
बाँधोगे कैसे जो मेरे जीने का है जज्बा ।
पिंजरा तो बना लोगे मज़बूत,
पर क्या करोगे इन फौलादी इरादो का ।
तोड़ न भी पाऊ ये ज़ंजीरे तो गम नहीं ,
है फिर भी बुलंद ये जो है होसला ।
तुम नाम देते हो हमे कैदी का,
मै स्वतंत्र खुद को मानता हुँ ।
तुम जो भी नाम दे दो नये मुझे ,
मै पहचान अपनी जानता हूं ।
तुम चढ़ा दो आँखों पे कोई पर्दा ,
मैं उनमे सपने बुन लूंगा ।
बंद आंखे हुई तो क्या,
जब तक है साँस मैं हूँ ज़िंदा ।
मैं नियमों की इस कैद से दूर ,
खुली हवा में उड़ना चाहता हू ।
ऊँच नीच की दीवारों को फाँद कर ,
अपने मायने बनाना चाहता हूँ ।
तुम कैद कर जो लोगे मेरे इन हाथों को ,
पर कैसे बाँध पाओगे समंदर ख्यालों का ।
जकड़ लोगे मुझे चंद बेड़ियों में तो क्या,
बाँधोगे कैसे जो मेरे जीने का है जज्बा ।