एक दिन बैठे थे हम खुदा के साथ ,
और पूछ रहे थे क्यूँ उसने बनाई ये दुनिया ।
क्यूँ किसी के दामन में डाले उसने सुख ,
और किसी की झोली में डाली कमियाँ ?
क्यूँ उसी के बन्दे लड़ते हैं दूजे से ,
चंद बीघा ज़मीन की खातिर ?
क्यूँ इंसान हो गया है इंसान का दुश्मन ,
कहाँ गयी इंसानियत, कहाँ गया ज़मीर ?
खुदा मुस्कुराया और चुप रहा ,
मानो अपनी चुप्पी से था कुछ कह रहा ।
जो राज़ उसने बोले नहीं ,
उसकी चुप्पी कर गयी बयाँ ।
जब मैंने ये स्वर्ग था बनाया ,
तो था हर कोई एक बराबर
सब एक ही सूरज की किरणों से जागते है ,
सब सोते उसी आसमान की ओढे चादर।
इंसान का लालच उसे आज यहां ले आया ,
जितना पा लेता, उतना और पाना चाहता ।
ज़मीन को, आसमान को अपनी जागीर समझ ,
पानी को भी बाटना चाहता ।
इंसान इंसान को मेरी परछाई न समझ ,
सिर्फ मतलब पूरा करने की एक सीढ़ी समझता ।
उसमें मुझे ढूंढने के बजाय ,
दर दर भटक मेरी तलाश पत्थरों में करता ।
आज मैं हैरान हूँ अपनी इस कायनात के बन्दों से ,
इसलिए शब्दों में बयान न पाउँगा ।
अपने बन्दों को राह दिखाने ,
मैं एक रोज़ तो आऊँगा ।