बचपन ने दी थी जब दस्तक

कल दरवाज़े पे हमारे ,

  हुई जो एक दस्तक ।
पूछा हम ने कौन है वहाँ ,
  आवाज़ ने कहा ‘तेरा बचपन ‘ ।
हम ने कहा अब आये हो क्यों ,
 अब हो गए है बड़े हम ।
है अब कहाँ  समय बचपन की मासूम बातों के लिए ,
  अब तो ज़िन्दगी में है कई गम ।
उसने कहा उन मुश्किल पलों  के बीच ,
  क्यों न कुछ पल तुम निकालो ।
कुछ पल सिर्फ अपने लिए ,
  एक बच्चा बन आज गुज़ारो ।
हम ने फिर भी न खोला वो दरवाज़ा ,
  समय कहाँ था अब बचपने के लिए ।
हम तो उलझे थे अपने ही सवालोँ में ,
  फिर कैसे मिलते अपने ही बचपन से ।
कहाँ  से करते फिर मासूम बातें अब,
  हम ने तो सीख लिया था हर पल देना धोख़ा ।
दूसरोँ से कहते कहते झूठ ,
  हम ने था अब उस मासूमियत को खोया ।
अब कहाँ  से हसते  बिना किसी मतलब के ,
  हमे तो थी अब दुनिया की फ़िक्र ।
लोग क्या कहेंगे, ऐसे सोचते सोचते ,
  कैसे बन सकते थे हम बच्चा फिर ।
बचपन का वो भोलापन ,
 वो बेफिक्र रहना और  वो चैन के नींद,
शायद अब तो हम ने एक कैदी ,
  लालच, घमंड और द्धेष ने हमे लिया है खरीद |
उसने फिर दी दस्तक ,
  हम ने न  दिया जवाब उसे ।
अब हम कैसे फिर बच्चा बनते ?
  बचपन के लिए कहाँ था समय ।
बचपन ने दी थी जब दस्तक..

Author of "My Beloved's MBA Plans", "Because Life Is A Gift" & "Corporate Avatars"

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