उसने कहा कोशिश कैसे करुँ ,
मन में जब उम्मीद नहीं ।
उसने कहा किस रस्ते जाँऊ ,
जब जीवन में मंज़िल नहीं ।
यूँ मन के हारे हार है,
पर मन के जीते जीत भी ।
है सांसें तो फिर उम्मीद न छोड़ ,
क्यूंकि उम्मीद ही है ये ज़िन्दगी ।
उसने कहा है पैरों में बेड़ियाँ ,
तो फिर कैसे कदम बढ़ाऊं ।
उसने कहा है ये एक पिंजरा ,
तोड़ इसे कैसे उड़ जाऊँ ।
पैरों की बेड़ियाँ मन के ढृढ़ निश्चय को ,
कब है बॉंध पाईं ?
कैद तो हम है अपनी ही सोच से ,
हमने है खुद ही ये दीवार बनाई ।
उस हौसले को कोई तोड़ पाया नहीं ,
वो लौ कभी न है बुझी ।
जो हमने है खुद से जुटाया ,
जो हमने है खुद जलाई ।